
सूरतगढ़। लोकतंत्र में किसी आंदोलन की सफलता के लिए सबसे जरूरी है उसके अगवा नेताओं की ईमानदारी। जिला बनाने के आंदोलन की बात करें तो दुख के साथ कहना पड़ेगा कि आंदोलन की अगुवाई कर रहा एक भी नेता इस आंदोलन के प्रति ईमानदार नहीं है। खुद को किसान, मजदूर,व्यापारी और जनता का अग़वा बताने वाला कोई भी नेता आगे बढ़कर इस आंदोलन का नेतृत्व नहीं करना चाहता है। भाजपा चूँकि इस समय मुख्य विपक्ष की भूमिका में है तो इस आंदोलन को सड़क पर लड़ने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी भाजपा नेताओं की है। परन्तु कड़वा सच ये है दूसरी पार्टियों के साथ भाजपा के भी ज्यादातर नेता ये मान रहे हैं कि अब सूरतगढ़ जिला नहीं बन सकता। लेकिन जिले का मुद्दा चूँकि सीधे जनता की भावनाओं से जुड़ा हुआ है इसलिये अधिकांश नेता बस दिखावे के लिये आंदोलन के साथ खड़े है।
यही वजह है कि आंदोलन में भीड़ नहीं आने का सवाल आज भी जस का तस खड़ा है। आंदोलन से जुड़ा कोई भी नेता इस सवाल का जवाब ढूंढना नहीं चाहता है। स्टीयरिंग कमेटी की प्रत्येक बैठक में भाजपा के एक बड़े नेता बार-बार 300 आदमी रोज लाने की बात दोहराते हैं लेकिन वो 300 आदमी कब आएंगे मालूम नहीं ! नेताजी कहते है आदमियों को बुलाने के लिए साधन चाहिए। लेकिन नेताजी को ये साधन कौन उपलब्ध कराएगा इसका फैसला भी अब तक हो नहीं पाया है ! इसी तरह एक और नेता 200 आदमियों को रोज बुलाने का खम ठोकतें हैं। लेकिन नेताजी के इन 200 लोगों के आने का इंतज़ार भी अभी खत्म नहीं हुआ है। इन दो नेताओं के अलावा भी स्टीयरिंग कमेटी में भाजपा सहित कुछ और पार्टियों से चुनाव लड़ने की दावेदारी ठोक रहे डेढ़ दर्जन नेता शामिल है। परन्तु अफ़सोस है कि कमेटी की बैठकों में अगली पंक्तियों के इन नेताओं को भीड़ लाने के सवाल पर सांप सूंघ जाता है। अब सवाल यह पैदा होता है कि 68 हज़ार लोगों के वोट से विधानसभा में पहुंचने और हर महीने लाखों का वेतन भत्ता पाने वाले नेताजी कुछ दिन के लिये रोजाना 300 लोगों को बुलाने की व्यवस्था अपने स्तर पर नहीं कर सकते हैं तो इस शहर के जनता को नेताजी की लाचारी के बारे में सोचना चाहिए ? वैसे सवाल 200 लोगों को रोज बुलाने का खम ठोकने वाले नेताजी से भी है कि उन्हें भी बताना चाहिए कि उनके 200 आदमी आंदोलन में आये इसके लिए क्या व्यवस्था करनी होगी ? ऐसे ही सवाल अगली पंक्ति के उन नेताओं से भी है जो 10-20 लोगों की भीड़ इस आंदोलन में नहीं ला सकते तो फिर वे किस हैसियत से विधानसभा के 2 लाख लोगों का नेता बनने का दम भर रहे हैं ! इन सवालों के अलावा सभी नेताओं से एक सवाल यह भी है कि ज़ब बिना साधनों (धन) की व्यवस्था के भीड़ बुलाई नहीं जा सकती है तो फिर ये नेता लोग आगे बढ़कर धन की व्यवस्था क्यों नहीं करते ? लेकिन इन नेताओं की पोल यहां भी खुल जाती है ज़ब पता चलता है कि कमेटी से जुड़े अधिकांश नेताओं ने अभी तक दुवन्नी का भी योगदान इस आंदोलन में नहीं किया है। इन नेताओं की बला से ये आंदोलन अब तक व्यापारिक संगठनों और सामाजिक संस्थाओं द्वारा दिए गए सहयोग से ही संचालित हो रहा है।
स्टीयरिंग कमेटी की बैठक को लेकर एक सवाल यह भी उठता रहा है कि कमेटी बैठकों पर बैठकें करने के बावजूद आंदोलन की दशा और दिशा को लेकर कोई ठोस निर्णय नहीं ले पाई है। इसके लिए भी आपके नेताओं का आंदोलन के प्रति उदासीन रवैया है। समिति के अधिकांश बैठकों में बड़े नेताजी से लेकर तमाम नेताओं का यह रटा रटाया वक्तव्य रहा है कि समिति जो भी निर्णय करेगी हम उसके साथ हैं। इस वक्तव्य से आप इन नेताओं की मानसिकता और लाचारगी का अंदाजा लगा सकते हैं। वैसे इन नेताओं से क्या ये पूछा नहीं जाना चाहिए कि आखिर आप लोगों को इस समिति में किसलिए लिया गया है ? जब आप इस आंदोलन के लिए कोई ठोस निर्णय कर ही नहीं सकते तो फिर क्यों इस समिति का हिस्सा बने हुए हैं ! खैर आंदोलनों का दम भरने वाले नेताओं का यह वक्तव्य इन नेताओं की आंदोलन के प्रति निष्ठा बताने के लिए काफी हैं।
वैसे इस खुलासे का मकसद कांग्रेसी नेताओं को कहीं भी क्लीन चिट देने का नहीं है। जिला बनाने के आंदोलन की असफलता में कांग्रेस नेताओं की भूमिका भी महती रही है। ये सच है नगरपालिका और स्थानीय मुद्दों में उलझे कांग्रेसी नेताओं ने समय पर जिला बनाने की मांग पर ध्यान नहीं दिया। लेकिन यह भी सच है कि ज़ब अपराध बोध से ग्रसित कांग्रेसी नेताओं ने जनभावनाओं को देखते हुए इस आंदोलन से जुड़ना चाहा तो षड्यंत्र पूर्वक उन्हें तिरस्कृत करने की कोशिश की गई। षडयंत्र पूर्वक इसलिए कि कांग्रेस नेताओं से इस्तीफा मांगने वाले नेताओं ने अपनी पार्टी के विधायकों और जनप्रतिनिधियों से क्यों इस्तीफा नहीं माँगा ? क्या विधानसभा के लाखों लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले विधायक की कोई जिम्मेदारी नहीं थी ? फिर भी सत्ता से जुड़े होने के चलते जिला बनाने की मांग को लेकर चल रहे इस आंदोलन को अब भी कांग्रेस के बड़े नेताओं की आहुति का इंतज़ार है।
चलते चलते आपको यह भी बता दें कि 2 दर्जन से अधिक नेता इस फ़िक्र में ही इस आंदोलन से जुड़े है कि कोई दूसरा नेता इस मुद्दे का राजनीतिक फायदा ना उठा ले। इसीलिए जब पूजा छाबड़ा ने ज़ब आगे बढ़कर आमरण अनशन की घोषणा की तो आंदोलन से जुड़े नेताओं की नींद उड़ गई। अनशन स्थल पर छाबड़ा के अनशन के चलते ज़ब जनता का इस आंदोलन से जुड़ाव बढ़ने लगा तो फोटो बाजी में मशगूल नेताओं को यह गवारा नहीं हुआ। तीसरे दिन तो षड्यंत्रकारी नेताओं ने आमरण अनशन कर रही महिला के बैनर-पोस्टर उखाड़ फ़ेंके। इतना ही नहीं छाबड़ा को मिल रही लोकप्रियता हमारे नेताओं से देखी न गई तो इन्होंने मंच और आंदोलन से ही दूरी बना ली।
बहरहाल इस आंदोलन ने अपने आपकों राजनीति के दिग्गज,जमीन से जुड़े और आंदोलनकारी की उपाधियों से नवाजे जाना पसंद करने वाले नेताओं की पोल खोल कर रख दी है। करीब 20 दिनों से चल रहे आंदोलन में दो दर्ज़न से अधिक नेता मिलकर भी अब तक भी विरोध दिखाने लायक भीड़ नहीं जुटा पाए हैं। पिछले सोमवार को अनशन स्थल पर हुई जनपंचायत भीड़ नहीं जुटने की वजह से एक नुक्कड़ सभा बन कर रह गई। वहीं इससे पहले मानकसर और इंदिरा सर्किल पर हाईवे जाम का मामला भी इन नेताओं की अनिच्छा के चलते पूरी तरह से फ्लॉप शो बन गया था पर कुछ युवाओं की वजह से आंदोलन की पोल खुलते खुलते रह गई।
कुल मिलाकर अगर देखा जाए तो पूजा छाबड़ा और उसके बाद उमेश मुदगल, विष्णु तरड़, बलराम वर्मा और अब दो महिलाओं जुलेखा बेगम और हरबख्स कौर बराड और विनोद घिन्टाला के आमरण अनशन की बदौलत ही यह आंदोलन अभी तक सांसे ले रहा है। वरना जिला बनाओ अभियान समिति और इसके नेता अब तक गाल बजाने और फोटो खिंचवाने के सिवा कुछ भी नहीं कर पाए हैं ? शायद इसीलिए किसी शायर ने नेताओं के लिए ये पंक्तियां लिखी है…..
क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ।
रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ।।
– राजेंद्र पटावरी, उपाध्यक्ष-प्रेस क्लब,सूरतगढ़।
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