सूरतगढ़। सूरतगढ़ को जिला बनाने की मांग को लेकर मंगलवार को उपखंड कार्यालय पर आमसभा का आयोजन किया गया। आम सभा में तमाम दिग्गज नेताओं की कोशिशों के बावजूद भीड़ मुश्किल से 4 अंकों तक पहुंच पाई। सबसे बड़ी बात यह रही कि आम सभा में शहरी क्षेत्र के लोगों की भागीदारी बहुत कम रही। आंदोलन की शुरुआत में बड़ी संख्या में शहर के लोग भावनात्मक रूप से इस आंदोलन से जुड़े थे। लेकिन समय बीतने के साथ शहर के ऐसे लोगों की संख्या बढ़ने के बजाय लगातार घटती गई। सवाल यह पैदा होता है कि जिला बनने से सबसे ज्यादा लाभ इसी शहर और इसके लोगों को होना है फिर क्यों शहर का आम आदमी इस संघर्ष से लगातार दूर होता जा रहा है ? क्यों लगातार क्रमिक अनशन से लेकर आमसभा से आम आदमी दूरी बना रहा है ? हालात यह है कि संघर्ष समिति को क्रमिक अनशन जारी रखने के लिए लोगों से गुहार लगानी पड़ रही है ? जबकि आंदोलन की शुरुआत में एक दौर ऐसा भी था जब आमरण अनशन के लिए खुद-ब-खुद लोग अपना नाम लिखा रहे थे ? वहीं एक दौर यह भी है जब पैंफलेट वितरण से लेकर नुक्कड़ सभाओं और जनसंपर्क के बावजूद लोग आंदोलन से जुड़े कार्यक्रमों में नहीं पहुंच रहे हैं।
यह ठीक है कि आपाधापी के जीवन में किसी के पास भी वक्त नहीं है। लेकिन यह भी सच है कि आंदोलन की शुरुआत से लेकर अब तक के सफर में आंदोलन से जुड़े नेता अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं जिसकी वजह से शहर के आम आदमी का आंदोलनो से मोहभंग हो रहा है।समिति द्वारा जिस तरह से टाइमपास के रूप में इस आंदोलन को चलाया जा रहा है उसे शहर की जनता देख रही हैं। अनशन स्थल पर माइक बंद होने के बाद से जिला नहीं बनने की टीस लोगों के गले में फंस कर रह गई हैं। मंच की चुप्पी ने अब लोगों को आकर्षित करना बंद कर दिया है। इसके अलावा जिला बनाओ आंदोलन के लिए दिल से जुड़े लोगों की भी अभियान समिति में अपेक्षा की जा रही है जिसकी वजह से भी आम आदमी आंदोलन से दूर होता जा रहा है।
बहरहाल समिति को आम आदमी की भागीदारी से जुड़े इन सवालों का जवाब ढूंढने की जरूरत है। क्योंकि यह आंदोलन केवल ग्रामीण जनता के भरोसे नहीं चलाया जा सकता। इस आंदोलन की सफलता के लिए शहर की आहुति की जरूरत है।
क्या राजनीति के चलते नहीं जुटी पर्याप्त भीड़ !
उपखंड कार्यालय पर आयोजित आम सभा की तैयारियों को लेकर कार्यसमिति की बैठक में शामिल तमाम नेताओं ने भीड़ लाने के अपने-अपने दावे किए थे। उन दावों के मुताबिक उपखंड कार्यालय पर कम से कम ढाई से तीन हजार लोगों की भीड़ होनी चाहिए थी। लेकिन टेंट में बैठे और आसपास खड़े हुए लोगों का आंकड़ा इन नेताओं के दावों की हंसी उड़ा रहा था। कार्यसमिति के 1-2 नेताओं को छोड़ दे तो कोई भी अपने वादों पर खरा नहीं उतरा। इस पूरे घटनाक्रम के अनुसार में हम यह कह सकते हैं कि या तो हमने जिन लोगों को अपना नेता माना है वो केवल हवा हवाई नेता है जो किसी जुगाड़ से पार्टी की टिकट लाकर आप पर राज करना चाहते हैं या फिर जिला बनाने के आंदोलन के प्रति इन नेताओं की नियत साफ नहीं है और इसीलिये उन्होंने आमसभा में भीड़ लाने की कोशिश ही नहीं की।
हालांकि शहर में यह चर्चा लगातार बनी हुई है कि जिला बनाओ अभियान समिति राजनीति का शिकार हो गई है। समिति से जुड़े नेताओं में इस बात की होड़ लगी हुई है कि कोई दूसरा नेता आंदोलन का श्रेय ना ले ले इसलिए समिति के कार्यक्रमों में भीड़ नहीं हो रही है। हालांकि राजनीति का एक हिस्सा मानकर इस बात को स्वीकार भी कर ले तो भी यह पूरा सच नहीं है। वास्तव में जिला बनाओ अभियान समिति की दिक्कत शायद इससे बड़ी है। क्यूंकि संघर्ष समिति के जो अगवा नेता दूसरों को आंदोलन का श्रेय नहीं लेने की चिंता में घुले जा रहे हैं वे खुद भी आगे बढ़कर आंदोलन की कमान संभालना ही नहीं चाहते हैं। इसकी वजह यह है कि यह आंदोलन इन नेताओं को एक मरे हुए सांप के मानिंद लगने लगा है जिसे कोई भी अपने गले में डालना नही चाहता ! एक वजह यह भी है कि चुनाव के कुछ ही महीने बाकी है ऐसे में ये नेता एक तो अपना कीमती समय इस आंदोलन में बर्बाद नहीं करना चाहते। दूसरे जिला नहीं बनने के मुद्दे को ये नेता कांग्रेस नेताओं के खिलाफ भुनाना चाहते हैं। इसीलिये अधिकांश नेता रस्म अदायगी के लिए इस आंदोलन से जुड़े हुए हैं। अगर सभी नेता ईमानदारी से प्रयास करते हैं तो उपखंड कार्यालय पर आम सभा में हुई भीड़ का आंकड़ा निश्चय ही कुछ अलग होता।