प्रशासनिक अधिकारियों से सवाल करना पड़ सकता है भारी
शहर के नए हाकिमो को सवाल खड़े करना नही है पसन्द

सूरतगढ़।सूरतगढ़ में मोनू दाधीच नामक युवक द्वारा फेसबुक पर जाति विशेष के प्रशासनिक अधिकारियों पर टिप्पणी के मामले ने सूरतगढ़ प्रशासन की हिटलरशाही और आम आदमी की लाचारी दोनों को एक साथ उजागर कर दिया है । इस मामले में जाति विशेष के अधिकारियों की शिकायत पर पुलिस ने आनन-फानन में ही बुधवार को युवक को शांति भंग के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। गुरुवार को जब पुलिस ने युवक को कार्यपालक मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया गया तो मजिस्ट्रेट( नायाब तहसीलदार) ने सामान्य जमानत की बजाय तसदीकसुदा जमानत की मांग करते हुए युवक को न्यायिक अभिरक्षा में भेज दिया । सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार युवक के परिजनो ने शुक्रवार को तस्दीकसुदा जमानत के लिए आवेदन किया गया तो तहसील के एक सक्षम अधिकारी ने लोकडाउन के दौरान हैसियत प्रमाण पत्र नहीं जारी करने के जिला मुख्यालय से आदेश होने का हवाला देकर प्रमाण पत्र जारी करने से मना कर दिया। हालांकि देर सवेर जमानत योग्य दस्तावेजों की व्यवस्था होने पर युवक की जमानत भी हो जाएगी । परन्तु यह घटना कई बड़े सवाल खड़े करती है। पहला सवाल ये है कि जब देश भर की राज्य सरकारें कोरोना महामारी के चलते जेल में गंभीर आरोपों में बंद कैदियों को जमानत देकर छोड़ रही है। वही सूरतगढ़ में केवल प्रशासनिक अधिकारियों की ईगो के चलते शांतिभंग के मामूली आरोप में तस्दीकसुदा जमानत(हैसियत प्रमाण पत्र) की मांग कर युवक को जेल भेज दिया जाना अखरता है । जहां तक मेरी सामान्य जानकारी है कि तस्दीकसुदा जमानत की मांग विशेष (आदतन अपराधी या भाग जाने की संभावना जैसे ) मामलों में ही की जाती है। लेकिन मनोज दाधीच नामक जिस युवक की बात हो रही हैं। वह प्राइवेट शिक्षण का कार्य करता है और किसी भी तरह की आपराधिक पृष्ठभूमि से नहीं आता है। दूसरा सवाल ये है कि जब मामला बड़े प्रशासनिक अधिकारियों से जुड़ा हुआ है, ऐसे में इन अधिकारीयों के मातहत मजिस्ट्रेट द्वारा जमानत की सामान्य प्रक्रिया के स्थान पर विशेष प्रक्रिया अपनाना ही प्रश्न खड़े करता हैै।
तीसरा सवाल ये है कि संभव है मोनू दाधीच ने ऐसे शब्दों का प्रयोग किया हो जो इन अधिकारियों को आपत्तिजनक लगे हो। पर क्या मोनू दाधीच ने वाहनों को अनुमति पत्र जारी करने में इन प्रशासनिक अधिकारियों की कार्यप्रणाली पर जो सवाल उठाए वो गलत है ? क्योंकि यह किसी से छुपा हुआ नही है खासकर एसडीएम मनोज मीना द्वारा मेडिकल इमरजेंसी के मामलों में भी वाहनों की अनुमति देने में संवेदनशीलता नही दिखाई जा रही है। ऐसे ही एक मामले में कुछ दिन पूर्व ही हाईलाइन समाचार पत्र से जुड़ा एक युवक अपनी 2 वर्षीय पुत्री को इलाज के लिए जयपुर ले जाने के लिए वाहन अनुमति के लिए एसडीएम कार्यालय पहुंचा था। परन्तु एसडीएम साहब युवक की लगातार गुहार के बावजूद करीब 2 घण्टे तक कार्यालय में नहीं पहुंचे । आखिरकार प्रेस क्लब के अध्यक्ष हरिमोहन सारस्वत ने हस्तक्षेप कर जिला कलेक्टर से बात की तब जाकर एसडीएम कार्यालय में पहुंचे और अनुमति जारी की । आम आदमी को अनुमति के लिए किस तरह से परेशान होना पड़ रहा है । इसका अंदाजा आप इस घटना से लगा सकते हैं । इसके अलावा जिला प्रशासन के तमाम आदेशों के बावजूद अधिकारी महोदय फोन भी उठाते नहीं है । ऐसे एक नहीं कई किस्से है जो साहब की कार्यशैली को दर्शाते हैं।
बहरहाल इस मामले ने ऊंचे पदों पर बैठे अहंकारी प्रशासनिक अधिकारियों की तुच्छता को भी उजागर कर दिया है । क्योंकि इस मामले में आरोपी का पिता इन्हीं अधिकारियों के कार्यालय में कार्यरत मामूली चपरासी है। ये अधिकारी अपने मातहत कर्मचारी के पुत्र की गलती को माफ कर अपने बड़े होने का उदाहरण भी पेश कर सकते थे। वही दूसरी ओर इस मामले में राजस्व विभाग के कर्मचारियों और उनकी यूनियन की कलई खुल गयी है जो अपने ही विभाग के अधिकारीयों की ईगो के ताप से अपने ही सहकर्मी के परिजनो को बचा नही सके कुल मिलाकर जिओ के दौर में मोनू दाधीच प्रकरण से शहर के फेसबुक पर सक्रिय युवाओं को अब यह समझ लेना चाहिए कि शहर के नए हाकिमों को व्यवस्था पर सवाल खड़े करना पसंद नही है ? आम आदमी की व्यवस्था से कम होती उम्मीदों के इस दौर में किसी कवि की ये पंक्तियां याद आती है
कातिल ही जैसे मुन्सिफों में हो शुमार ।
इंसाफ कैसे मिलता अदालत ही बिक गयी ।।
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