जानिए होली का त्योंहार मनाने से जुड़ी प्राचीन कथाएं ! क्या है होली से जुड़ी परम्पराएं ?

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सूरतगढ़। रंगों और उल्लास का पर्व होली यूँ तो भारत और नेपाल सहित विश्व भर में मनाया जाता है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे ‘फाल्गुनी’ तो बसंत ऋतु में मनाए जाने की वजह से इसे बसंतोत्सव या काम महोत्सव भी कहते है।

वसंतपंचमी से इसका आरंभ होता है और इसी दिन पहली बार ग़ुलाल उड़ाया जाता है साथ ही फाग और धमार ( धमाल) का गाना प्रारंभ हो जाता है। इस समय तक खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। जिससे पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। 

आमतौर पर 2 दिन तक चलने वाले त्योहार के पहले दिन होलिका दहन होता है तो दूसरे दिन रंगों के साथ होली खेलने का पर्व जिसे आम तौर पर धुलेंडी कहते है मनाया जाता है। धुलेंडी के अलावा इसे धुरड्डी, धुरखेल या धूलिवंदन भी कहा जाता हैं। इसमें लोग एक दूसरे पर रंग -अबीर-ग़ुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल (चंग) बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं। घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाईयाँ खिलाते हैं।

होली का त्यौहार मानने से जुड़ी कुछ प्रमुख कथाएं…

होली राधा और कृष्ण के पावन प्रेम से तो जुड़ा ही है साथ ही होली को मनाने के बारे में भक्त प्रहलाद और हिरण्यकश्यप की कथा के बारे में तो सभी को पता है। लेकिन होली मनाने को लेकर कई अन्य कथाएं भी प्रचलित है।

इनमें शिव पार्वती और कामदेव की कथा प्रमुख है। इस कथा के अनुसार हिमालय पुत्री पार्वती भगवान शिव से विवाह करना चाहती थी परन्तु उस समय शिवजी तपस्या में लीन थे। तब कामदेव ने पार्वती की सहायता के लिए पुष्प बाण चलाया जिससे भगवान शिव की तपस्या भंग हो गयी। शिवजी को इस पर बड़ा क्रोध आया और उन्होंने अपनी तीसरी आँख खोल दी। उनके क्रोध की ज्वाला में कामदेव का शरीर भस्म हो गया। फिर शिवजी ने पार्वती को देखा। पार्वती की आराधना सफल हुई और शिवजी ने उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया। इस कथा के आधार पर होली की आग में वासनात्मक आकर्षण को प्रतीकत्मक रूप से जला कर सच्चे प्रेम की विजय का उत्सव मनाया जाता है।

इसी घटना से जुड़ी एक दूसरी कथा के अनुसार कामदेव के भस्म हो जाने पर उनकी पत्नी रति ने विलाप किया और शंकर भगवान से कामदेव को जीवित करने की गुहार की। ईश्वर प्रसन्न हुए और उन्होने कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया। यह दिन होली का दिन होता है। आज भी रति के विलाप को लोक संगीत के रूप मे गाया जाता है और चंदन की लकड़ी को अग्निदान किया जाता है ताकि कामदेव को भस्म होने मे पीड़ा ना हो। साथ ही बाद मे कामदेव के जीवित होने की खुशी मे रंगो का त्योहार मनाया जाता है
एक अन्य कथा के अनुसार कंस को भविष्यवाणी हुई कि वसुदेव और देवकी का आठवाँ पुत्र उसके विनाश का कारण होगा। जिसके बाद उसने उन्हें कारागार में डाल दिया और कारागार में जन्म लेने वाले देवकी के सात पुत्रों को मौत के घाट उतार दिया। आठवें पुत्र के रूप में कृष्ण का जन्म हुआ और परन्तु चमत्कार से कारागार के द्वार खुल गए और वासुदेव रातों रात कृष्ण को गोकुल में नंद और यशोदा के घर पर रखकर उनकी नवजात कन्या को अपने साथ लेते आए। कंस ने जब इस कन्या को मारना चाहा तो वह अदृश्य हो गई तभी आकाशवाणी हुई कि कंस को मारने वाले तो गोकुल में जन्म ले चुका है। कंस यह सुनकर डर गया और उसने उस दिन गोकुल में जन्म लेने वाले हर शिशु की हत्या करने की जिम्मेदारी पूतना नामक राक्षसी को सौंपी। पूतना सुंदर रूप बना महिलाओं में घुलमिल जाती और स्तनपान के बहाने शिशुओं को विषपान करा उनको मार देती। अनेक शिशु उसका शिकार हुए, लेकिन कृष्ण उसकी सच्चाई को समझ गए और उन्होंने पूतना का वध कर दिया। यह फाल्गुन पूर्णिमा का दिन था इसलिए भगवान कृष्ण द्वारा पूतनावध की खुशी में भी होली मनाई जाने लगी।

इसके अलावा होली को लेकर एक और कथा भी प्रचलित है। इस कथा के अनुसार राजा पृथु के समय के समय में ढुंढी नामक एक कुटिल राक्षसी थी। देवताओं को प्रसन्न कर के उसने वरदान प्राप्त कर लिया था कि उसे कोई भी देवता, मानव, अस्त्र या शस्त्र नहीं मार सकेगा, ना ही उस पर सर्दी, गर्मी और वर्षा का कोई असर होगा। इस वरदान के बाद उसका अत्याचार बढ़ गया क्यों कि उसको मारना असंभव था। यह राक्षसी अबोध बालकों को खा जाती थी। राजा पृथु ने ढुंढी के अत्याचारों से तंग आकर राजपुरोहित से उससे छुटकारा पाने का उपाय पूछा। पुरोहित ने कहा कि यदि फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन जब न अधिक सर्दी होगी और न गर्मी सब बच्चे एक एक लकड़ी लेकर अपने घर से निकलें। उसे एक जगह पर रखें और घास-फूस रखकर जला दें। ऊँचे स्वर में तालियाँ बजाते हुए मंत्र पढ़ें और अग्नि की प्रदक्षिणा करें। ज़ोर ज़ोर से हँसें, गाएँ, चिल्लाएँ और शोर करें तो राक्षसी मर जाएगी। पुरोहित की सलाह का पालन किया गया और जब ढुंढी इतने सारे बच्चों को देखकर अग्नि के समीप आई तो बच्चों ने एक समूह बनाकर नगाड़े बजाते हुए ढुंढी को घेरा लिया और धूल व कीचड़ फेंकते हुए उसको शोरगुल करते हुए नगर के बाहर खदेड़ दिया। कहते हैं कि इसी परंपरा का पालन करते हुए आज भी होली पर बच्चे शोरगुल और गाना बजाना करते हैं।

होली से जुड़ी एक और कथा के अनुसार त्रेतायुग की शुरुआत में भगवन विष्णु जी ने धूलि का वंदन किया था। इसलिए होली के इस त्यौहार को धुलेंडी के नाम से भी मनाया जाता है। धुलेंडी होली के अगले दिन मनाया जाता है जिसमें लोग एक दूसरे पर धुल और कीचड़ लगाते हैं और इसे धूल स्नान कहा जाता है।

होली मनाने से जुड़ी परम्पराएं

होली का पहला काम झंडा या डंडा गाड़ना होता है। इसे किसी सार्वजनिक स्थल या घर के आहाते में गाड़ा जाता है। इसके पास ही होलिका की अग्नि इकट्ठी की जाती है। होली से काफ़ी दिन पहले से ही यह सब तैयारियाँ शुरु हो जाती हैं। होली पर्व का पहला दिन जिसे होलिका दहन का दिन कहा जाता है को चौराहे पर व जहाँ कहीं अग्नि के लिए लकड़ी एकत्र की गई होती है, वहाँ होली जलाई जाती है। कई जगह होलिका में भरभोलिए ( गाय के गोबर से बने उपले जिनमे एक में छेद होता है) से बनी माला जलाने की भी परंपरा है। इस छेद में मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में सात भरभोलिए होते हैं। होली में आग लगाने से पहले इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घूमा कर फेंक दिया जाता है। रात को होलिका दहन के समय यह माला होलिका के साथ जला दी जाती है। इसका यह आशय है कि होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाए।

लकड़ियों व उपलों से बनी इस होली का दोपहर से ही विधिवत पूजन आरंभ हो जाता है। घरों में बने पकवानों का यहाँ भोग लगाया जाता है। दिन ढलने पर ज्योतिषियों द्वारा निकाले मुहूर्त पर होली का दहन किया जाता है। इस आग में नई फसल की गेहूँ की बालियों और चने के होले को भी भूना जाता है। होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय का सूचक है। गाँवों और मोहल्लों में लोग देर रात तक होली के गीत गाते हैं तथा नाचते हैं।

होली से अगला दिन धुलेंडी या धूलिवंदन कहलाता है। इस दिन लोग रंगों से खेलते हैं। सुबह होते ही सब अपने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने निकल पड़ते हैं। गुलाल और रंगों से सबका स्वागत किया जाता है। लोग अपनी ईर्ष्या-द्वेष की भावना भुलाकर प्रेमपूर्वक गले मिलते हैं तथा एक-दूसरे को रंग लगाते हैं। इस दिन जगह-जगह टोलियाँ रंग-बिरंगे कपड़े पहने नाचती-गाती दिखाई पड़ती हैं। बच्चे पिचकारियों से रंग छोड़कर अपना मनोरंजन करते हैं। सारा समाज होली के रंग में रंगकर एक-सा बन जाता है। रंग खेलने के बाद देर दोपहर तक लोग नहाते हैं और शाम को नए वस्त्र पहनकर सबसे मिलने जाते हैं। प्रीति भोज तथा गाने-बजाने के कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं।

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